विवेक ने सिंबियोसिस (Symbiosis) से फारेन ट्रेड में एमबीए किया है और दालों (Pulses) पर उनकी खासी पकड़ है। उनके एक्सपर्ट कमेंट्स को कनाडा और ब्राजील ने भी बड़ी गंभीरता से सुना है। दालों को लेकर नीति निर्धारण में भारत सरकार ने भी विवेक की सलाह ली है। खैरागढ़ में लगा दरबार- ‘डंडा शरण' हाजिर हो..! ✍️प्राकृत शरण सिंह
खैरागढ़िया On Line हैं… लाइव शो के दौरान विवेक ने स्पष्ट कहा कि कोरोना काल की वजह से नॉनवेज (Nonveg) के शौकीन कम हुए हैं। विदेशों में भी ऐसे प्रोटीन का इस्तेमाल किया जा रहा है, जो नॉनवेज का टेस्ट दें। आने वाले पांच सालों में दुनिया में ज्यादातर लोग शाकाहारी (Vegetarian) हो जाएंगे। अनाज का बिजनेस बढ़ेगा। इसकी डिमांड 200 से 300 गुना तक बढ़ेगी।
यूरोपियन कंट्री में प्रोटीन की डिमांड पांच सौ गुना तेजी से बढ़ रही है। दालों की खपत हिंदुस्तान में भी बढ़गी और विदेशों में भी। हम इसे दो तरीकों से उपयोग कर सकते हैं। सरकार भी इसमें काफी काम कर रही है। पिछले कुछ सालों में सरकार ने ऐसी योजनाएं लाई हैं, जिससे उत्पादन बढ़ रहा है। मूल्यांकन रिपोर्ट बनाने के नाम पर में मांगे थे 40 हजार, ACB की टीम ने रंगे हाथों पकड़ा…
प्रोटीन की कमी पहले से ही थी, इसलिए भारत सरकार ने एक किलो चला गरीबों को दिया ताकि कमी पूरी हो सके। जाहिर है कि दालों की मांग बढ़ेगी तो किसानों को इसका फायदा ही होगा।
विवेक का कहना है कि जो किसान रॉ मटेिरयल का उत्पादन कर रहा है, वह एक्सपोर्ट (Export) नहीं हो सकता, लेकिन लोकल उद्योगपतियों के साथ मिलकर ऐसे प्लांट लगाए जा सकते हैं, जो हमारे अनाजों से प्रोटीन निकाल सके और उसे हम बाहर भेज सकें।
जैसे, भारत पहले 20 लाख टन सफेद मटर इंपोर्ट (आयात) करता था। यह बेसन में मिलाया जाता था। अब सरकार ने उसे बैन कर दिया है। अगर सफेद मटर का प्रोटीन निकाल लें। ऐसे प्लांट लगाएं, जो कनाडा की काफी सारी कंपनियां कर रही हैं, तो इसका फायदा मिलेगा। आपको बता दें कि मटर 20 रुपए किलो बिकता है और एक्ट्रेट किया हुआ प्रोटीन 500 से 1000 रुपए किलो में बिक रहा है।
भारत इस समय दुनिया का सबसे बड़ा दलहन उत्पादक, उपभोक्ता और आयातक तीनों है। बावजूद इसके देश में दाल की भारी कमी है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल 17 मिलियन टन दाल पैदा होती है, जो खपत से लगभग पांच लाख टन कम है। ऐसे में आईसीएआर के वैज्ञानिकों ने शोध के बाद 12 ऐसे सुझाव दिए हैं, जिससे दाल की पैदावार से साथ-साथ किसानों का मुनाफा भी बढ़ सकता है।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय किसान अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के वैज्ञानिक डॉ. रंजीत कुमार और इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी एरिड ट्रोपिक्स (आईसीआरआईएसटी) हैदराबाद के वैज्ञानिकों ने भारत को दालों में आत्मनिर्भर बनाने के लिए भी सुझाव दिए हैं, जिससे मांग और खपत के बीच के गैप को पूरा किया जा सकता है। दाल भारत में प्रोटीन का सबसे बड़ा स्त्रोत है। ज्यादातर भारतीयों की थाली में आपको दाल जरूर मिल जाएगी, इसी कारण दालों की सबसे ज्यादा खपत भारत में ही होती है। छत्तीसगढ़ : ASI ने की आत्महत्या अपने ही सर्विस रायफल से खुद को मारी गोली
इन वैज्ञानिकों ने अपने शोधपत्र में लिखा है कि हरित क्रांति (1964-1972) के समय भारत का एक मात्र लक्ष्य कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर बनना था। इसमें चावल और गेंहूं पर काफी ध्यान दिया गया। बहुफसलीय विधि, बेहतर बीजों और कीटनाशकों के प्रयोग से इसमें सफलता भी पाई गई। ये भी पढ़ें-‘जहरीली दाल' के आयात की सरकार करेगी जांच, लोकसभा में उठा मुद्दा 1960-61 की तुलना में 2013-14 में गेहूं की पैदावार 225 फीसदी बढ़कर 106 मिलियन टन हो गई तो वहीं चावल की पैदावार में 808 फीसदी की वृद्धि हुई और वो 95 मिलियन टन तक पहुंच गई।
टर्की के अंतरा यूनिवर्सिटी में लाखड़ी पर काम कर चुके भोपाल के कृषि वैज्ञानिक डॉ. सुरेंद्र बारपेटे ने बताया कि लथायरस यानी लाखड़ी का जुड़ाव छत्तीसगढ़ से है। लोकल भाषा में इसे खेसरी या तिवड़ा भी कहते हैं। हमारा अथक प्रयास है कि इस दाल को हम कैसे खाने योग्य बनाएं।
डॉ. बारपेटे ने बताया कि सूखे के दौरान लोग खेसरी दाल का उपयोग किया करते थे। अब ऐसी अवधारणा बन चुकी है दुनियाभर में ही कि ज्यादा लाखड़ी खाने से पैरालिसिस हो जाता है। इसलिए हम कुछ ऐसी प्रजातियां विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे कि हम इसमें निहित जहरीले तत्व को कम कर सकें।